संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) संबंध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं। अथवा संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) क्रिया से संबंध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं। इन दो 'परिभाषाओं' का अर्थ यह हुआ कि संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब 'ने', 'को', 'से' आदि विभक्तियाँ लगती है, तब उनका रूप ही 'कारक' कहलाता है, तभी वे वाक्य के अन्य शब्दों से संबंध रखने योग्य 'पद' होते है और 'पद' की अवस्था में ही वे वाक्य के दूसरे शब्दों से या क्रिया से कोई लगाव रख पाते है। 'ने', 'को', 'से' आदि विभिन्न विभक्तियाँ विभिन्न कारकों की है। इनके लगने पर ही कोई शब्द 'कारकपद' बन पाता है और वाक्य में आने योग्य होता है। 'कारकपद' या क्रियापद' बने बिना कोई शब्द वाक्य में बैठने योग्य नहीं होता। जैसे- "रामचंद्रजी ने खारे जल के समुद्र पर बंदरों से पुल बंधवा दिया।" इस वाक्य में 'रामचंद्रजी ने', 'समुद्र 'पर', 'बंदरों से' और 'पुल' संज्ञाओं के रूपांतर है, जिनके द्वारा इन संज्ञाओं का संबंध "बंधवा दिया' क्रिया के साथ सूचित होता है।
कारक के भेद
कारक विभक्ति
कर्ता ने
कर्म को
करण से
संप्रदान को, के लिए
अपदान से
संबंध का, के, की, रा, रे, री
अधिकरण मे, पर
संबोधन हे, अजी, अहो, अरे इत्यादि