श्रवण कुमार कथा

                    पौराणिक युग में शांति नाम के सिद्ध साधु हुआ करते थे उनकी पत्नी एक सिद्ध धर्म परायण नारी थी। कहानी उस समय की है कोमा जब शांतनु और उनकी पत्नी एक वृद्ध हो चुके थे और उनकी आंखों की रोशनी भी चली गई थी। इन दोनों का एक पुत्र था। जिसका नाम श्रवण कुमार था श्रवण कुमार बहुत ही सरल स्वभाव का व्यक्ति था। माता-पिता के लिए उसके मन में बहुत प्रेम एवं श्रद्धा थी। वह दिन रात अपने माता-पिता की सेवा करता था। अपने माता-पिता का बच्चों की तरह लालन पालन करता था। उसके माता-पिता भी स्वयं को गौरवशाली महसूस करते थे और अपने पुत्र को दिन-रात हजारों दुआएं देते थे। कई बार दोनों एक दूसरे से कहते कि हम तीनों धन्य हैं कि हमें श्रवण जैसा मातृ भक्त पुत्र मिला। जिसने स्वयं के बारे में ना सोच कर अपना पूरा जीवन वृद्ध नेत्रहीन माता-पिता की सेवा में लगा दिया इसकी जगह कोई और या अन्य कोई पुत्र होता तो शायद छोड़कर कहीं चला जाता। और खुशी से अपना जीवन यापन करता जब यह बात सुनी सुनी तो उसने माता-पिता से कहा कि मैं कुछ भी भिन्न नहीं कर रहा हूं या मेरा कर्तव्य है जब मैं छोटा था तब आपने मुझसे इससे ज्यादा भी प्रेम मुझे दिया है और अब मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि मैं आपकी सेवा करूं आप दोनों जो भी इच्छा रखते हैं मुझे कहे मैं उन्हें अवश्य पूरा करूंगा तब शांतनु और उसकी पत्नी कहते हैं पुत्र सावन हम दोनों की आयु हो चुकी है अब जीवन का कोई भरोसा नहीं किसी भी समय हमारी आंखें बंद हो सकती हैं ऐसे में हमारी एकमात्र इच्छा है कि हम जीते जी हम तीर्थ यात्रा करना चाहते हैं।


क्या तुम हमारी या इच्छा पूरी कर सकते हो? श्रवण कुमार अपने माता पिता के चरणों को पकड़कर अत्यंत प्रसन्नता के साथ कहता है हां पिताश्री या तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात होगी कि मैं आप दोनों की इच्छा पूरी करूंगा सरवन अपने माता पिता को तीर्थ करवाने हेतु एक कांवड़ तैयार करता है जिसमें एक तरफ शांतनु एवं दूसरी तरफ उनकी पत्नी बैठती है और कावड़ के डंडे को अपने कंधे पर लादकर यात्रा शुरू करता है जिसके हृदय में माता-पिता के प्रति इतना स्नेह है कि उसे उसका वर्ड का लेश मात्र भी बाहर नहीं लगता अपने पुत्र के इस कार्य से माता-पिता का मन प्रसंता से भर उठता है और वे पूरे रास्ते अपने पुत्र श्रवण को दुआएं देते चलते हैं तीर्थ करते समय जब ये तीनों अयोध्या नगरी पहुंचते हैं तब माता-पिता श्रवण से कहते हैं कि उन्हें प्यास लगी है श्रवण कंवर को जंगल में रखकर हाथ में पत्तों का पात्र बना कर सरयू नदी से जल लेने चला जाता है उसी समय उस वन में अयोध्या के राजा दशरथ आखिर पर निकले थे और उस घने वन में हिरण को शिकार बनाने के लिए उसका पीछा कर रहे थे तभी उन्हें घने जंगल में झाड़ियों के पास सरयू नदी के पानी के हलचल की आवाज आती है और वह उस हलचल को हिरण के पानी पीने की आवाज समझकर महाराज दशरथ शिकार के उद्देश्य तीर चला देते हैं और उस तीर से श्रवण कुमार के हृदय को आघात पहुंचता है जिससे उसके मुंह से पीड़ा भरी आवाज निकलती है जिसे सुन दशरथ स्तब्ध रह जाता है और उन्हें अनहोनी का एहसास होता है और वह भागकर सरयू नदी के तट पर पहुंचते हैं जहां वे अपने तीर को सावन के हृदय से लगा देख भयभीत हो जाते हैं और उन्हें अपनी भूल का अहसास होता है दशरथ श्रवण कुमार के समीप जाकर उससे क्षमा मांगते हैं तब अंतिम सांस लेता श्रवण कुमार महाराज दशरथ को अपने वृद्ध नेत्रहीन माता-पिता के बारे में बताता है और कहता है कि वह प्यासे हैं उन्हें जाकर पानी पिला दो और उसके बाद उन्हें मेरे बारे में कहना और इतना कहकर श्रवण कुमार मृत्यु को प्राप्त हो जाता है भारी हृदय के साथ महाराज दशरथ श्रवण के माता पिता के पास पहुंचते हैं और उन्हें पानी पिलाते हैं माता-पिता आश्चर्य से पूछते हैं उनका पुत्र कहां है? वे भले ही नेत्रहीन हों पर वे दोनों अपने पुत्र को आहट से समझ लेते थे माता-पिता के प्रश्नों को सुनकर महाराज दशरथ उनके चरणों में गिर जाते हैं और बीती घटना का विस्तार से वर्णन करते हैं पुत्र की मृत्यु की खबर सुनकर माता-पिता रोने लगते हैं और दशरथ से उन्हें अपने पुत्र के पास ले जाने को कहते हैं महाराज दशरथ का उठाकर दोनों माता-पिता को श्रवण के शरीर के पास ले जाते हैं माता-पिता बहुत जोर जोर से विलाप करने लगते हैं उनके विल आपको देखकर महाराज दशरथ को अत्यंत गिलानी का आभास होता है और वे अपनी करनी पर क्षमा मांगते हैं लेकिन दुखी माता पिता शांतनु महाराज दशरथ को श्राप दे देते हैं कि जिस तरह मैं शांतनु पुत्र के वियोग में मरूंगा उसी प्रकार तुम भी पुत्र वियोग में मरोगे इतना कहकर दोनों माता-पिता अपने शरीर को त्याग मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं महाराज दशरथ सर आप मिलने से अत्यंत व्याकुल हो जाते हैं और कई वर्षों बाद जब उनके पुत्र राम का राज्याभिषेक होता है तब माता कैकई के वचन के कारण राम सीता और लक्ष्मण को 14 वर्षों का वनवास स्वीकार करना पड़ता है और इस तरह महाराज दशरथ की मृत्यु भी पुत्र वियोग में होती है अपने अंतिम दिनों में उन्हें शांतनु के कहे शब्द याद आते हैं और वे राम के वियोग में अपना शरीर त्याग देते हैं।


इस कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?